प्रेमनंदन |
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी |
फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना कर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर इस लंबी पर गंभीर बातचीत को यहाँ पर क्रमशः प्रस्तुत किया जाएगा। प्रस्तुत है इस कड़ी का चतुर्थ और अंतिम हिस्सा ...
प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, फतेहपुर में शोध का इतिहास आप कब से मानते हैं और उसकी वर्तमान स्थिति क्या है?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-
शोध शब्द को शिक्षा जगत के जिस अर्थ-संकोच, अर्थ में ग्रहण किया जाता है
वह एक प्रकार की उच्च शिक्षा का विषयवार संदर्भ है। हिन्दी, विश्वविद्यालय
स्तर पर सर्वप्रथम बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उच्च कक्षाओं में पढ़ाई
जाने लगी और उसी के समानान्तर या समरूप सन्दर्भ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय
में भी इसका पठन-पाठन होने लगा। यह कार्य बीसवीं सदी के तीसरे दशक से
प्रारम्भ हुआ।
हिन्दी साहित्य का प्रथम शोध कार्य बनारस विश्वविद्यालय से ‘‘निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोयट्री’’ शीर्षक पर पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल
ने किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम शोध प्रबन्ध रामशंकर शुक्ल
‘रसाल’ ने अलंकार शास्त्र पर ‘‘इवोल्यूसन ऑफ हिन्दी पोयटिक्स (हिन्दी के
काव्य शास्त्र का विकास) शीर्षक से हिन्दी जगत का दूसरा, इलाहाबाद
विश्वविद्यालय का पहला और फतेहपुर जनपद के साहित्यकारों में पहला शोध
प्रबन्ध था।
प्रारम्भ
में हिन्दी के ही नहीं, समस्त भाषाओं और सभी विषयों के शोध प्रबन्ध
अंग्रेजी भाषा में ही लिखे जाते थे। इस प्रकार फतेहपुर जनपद में शोध का
इतिहास ‘‘इवोल्यूसन ऑफ हिन्दी पोयटिक्स’’ से माना जाना चाहिए।
पहले यह शोध कार्य उपाधि के रूप में ही किये गये। धीरे-धीरे शोध कार्य
विश्वविद्यालय की अकादमिक उन्नति का एक आधार बन गया और सभी विश्वविद्यालयों
में अपनी क्षमता अनुसार शोध कार्य कराना प्रारम्भ हुआ।
शोध
कार्य, आगे चलकर विश्वविद्यालयीय प्रोत्साहन के कारण भी प्रारम्भ हुआ।
शोधकर्ता को उपाधि मिलने पर यदि वह इच्छुक है तो उसे दो अतिरिक्त वेतन
वृद्धियाँ मिलती थीं और विश्वविद्यालय शोध प्रबन्ध के प्रकाशनार्थ अनुदान
भी देता था। आगे चलकर इस कार्य को उच्च शिक्षा के मानक से जोड़ दिया गया और
शोधकर्ताओं को नौकरी मिलने में कुछ वरीयता दी जाने लगी। आज की स्थिति में
वह एक अनिवार्य उपाधि है और उसकी समकक्षता में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा
(नेट) उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया गया है। धीरे-धीरे इस उपाधि को
लोभ-लालच में शोध कार्य का स्तर और उसकी व्यवस्था इतनी गिर गई है कि
शोधकर्ता और शोध प्रबन्ध के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध न के बराबर रह गये
हैं और शोध कराना पूरी तरह से व्यवसायिक हो गया है।
इस शोध कार्य के लिए विषय चयन प्राचीन से प्राचीनतम ग्रहण किया जाने लगा और
नवीन से नवीनतम सन्दर्भ में छोटे आकार के शोध प्रबन्ध भी निकलने लगे। शोध
कार्य का निर्देशक उस विषय का अधिकारी विद्वान होना अनिवार्य नहीं रह गया।
वह केवल ऊपरी आवरण व तकनीक तक सीमित रह गया और शोधकर्ता धन के आधार पर
उपाधियाँ अर्जित करने लगे।
प्रेम नंदन-
क्या कारण है कि रचनाकार अपनी ऊपर हो रहे शोध कार्य से या तो उदासीन हैं
या फिर शंकाग्रस्त? शोधार्थी के श्रम एवं मूल्यांकन को स्वीकार करने में
हिचकिचाहट क्यों होती है?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-
इस विषय में विश्वविद्यालय स्तर पर या शोध संस्थानों में दो प्रकार के
कार्यक्रम हैं। कुछ विश्वविद्यालय ऐसे हैं जो जीवित रचनाकार एवं उसके
व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लेकर शोध कार्य की अनुमति नहीं देते और कुछ
विश्वविद्यालयों में इस विषय में छूट है। कोई भी रचनाकार यदि वह
निर्वैयक्तिक रचनाकार है तो उसका रचनाशील बने रहना ही उसकी संतुष्टि का
ध्येय है वह इस प्रपंच में नहीं पड़ता है कि उस पर कितने लोग कितनी तरह से
कितनी विधाओं में क्या कर रह हैं? इसलिए वह अपने रचनाकर्म के प्रति जितना
सतर्क, सावधान और समर्पित रहता है उतना वह शोधार्थियों के प्रवंचनापूर्ण
प्रकरण से न केवल उदासीन रहता है बल्कि इसे उपेक्षा की दृष्टि से देखता है।
रचनाकार की शोधार्थी के प्रति यह दृष्टि आत्म प्रचार और आत्म श्लाघा के
साधन के रूप में लेना होता है तो दोनों ही एक दूसरे का विनाश करने वाले हैं
और यदि शोधार्थी द्वारा किया गया मूल्यांकन तटस्थ है तो रचनाकार से बहुत
अधिक सम्पर्कवान होना आवश्यक नहीं है। उसकी कृतियाँ ही शोधार्थी की मार्ग
निर्देशक हैं।
शोधार्थी
के श्रम का अस्वीकार इसलिए होता है कि वह एक दुकान से खरीद-फरोख्त जैसी
करना चाहता है। मान लीजिए एक ऐसा रचनाकार जिस पर आप शोध कर रहे हैं वह
जीवित है और उसने अपने जीवन के 30, 40, 50 वर्ष साहित्य सेवा में लगाये हैं
शोधार्थी दो-तीन साक्षात्कारों में उसकी समस्त पूंजी को संकलित करके उससे
बड़ा रचनाकार बन जाना चाहता है। इस सम्बन्ध में प्रकाशित कृतियाँ, उनका
कार्यकाल, उन रचनाओं की प्रेरक भूमियाँ सब अलग-अलग होती हैं। वे कुछ उपलब्ध
होती हैं कुछ अनुपलब्ध होती हैं। शोधार्थी के प्रति उदासीनता का मुख्य
कारण उसके परिश्रम में समर्पण का आभाव होता है।
प्रेम नंदन- कृपया समीक्षा और आलोचना में अन्तर स्पष्ट करने की कृपा करें और यह भी बतायें कि इस विधा का क्या महत्व है?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-
काव्य शास्त्र या आलोचना जगत में ये दोनो शब्द लगभग पर्यायवाची हो गये हैं
लेकिन मूलतः यह पर्यायवाची होते हुए भी उनके प्रभाव और व्युत्पत्ति में
काफी अन्तर है। आलोचना शब्द का प्रयोग होते-होते इतना अर्थ संकोच हो गया है
कि वह व्यवहार में मात्र निन्दावाचक शब्द माना जाता है और इस शब्द का सबसे
अधिक अवमूल्यन राजपुरुषों ने एक दूसरे की नीतियों, सिद्धान्तों को नीचा
दिखाने के लिए किया। साहित्य जगत का यह शब्द राजनीति में गया और वहाँ जाकर
विकृत हो गया।
वस्तुतः
अंग्रेजी के क्रिटिसिज्म के जिस अर्थ बोध के रूप में हम इसे प्रयोग करते
हैं उस अर्थ में आलोचना शब्द बहुत व्यापक है जबकि क्रिटिसिज्म सीमित है।
किसी विषय को सम्यक रूप से उसके दृष्टिकोण से आगे उसके परिवेशगत सन्दर्भ से
जानना, पहचानना, देखना और फिर प्रस्तुत करना आलोचना का कार्य है।
सामाजिक दशा में काव्य शास्त्र के मूल्यों को लोक कल्याणकारी मूल्यों से
देखना ही एक सफल आलोचक का काम होता है न कि किसी घोड़े की तरह अपनी पीठ से
मक्खियाँ उड़ाना। अंग्रेजी साहित्य में आलोचकों की इतनी निन्दा की गयी है कि
उन्हें भूसे के ढेर से छांटे हुए गेंहूँ का पुरस्कार दिया गया है। जबकि
भारतीय साहित्य में उसे ऋषि तुल्य माना गया है और उसे आंगन में रहने की
स्वीकृति प्रदान की गई है।
समीक्षा,
आलोचना का पारिवारिक शब्द है। व्याख्यात्मक और शास्त्रीय आलोचना के
अन्तर्गत किसी रचनाकार की उपलब्धियों की सराहना उसके दृष्टिकोण को पहचानना
और आलोचक और रचनाकार को साधारणीकरण के स्तर पर एक पंक्ति में ले आना ही
समीक्षक का दायित्व होता है। समीक्षक उतना विस्तारवान नहीं होता जितना कि
आलोचक। साहित्य के लिए समीक्षा और आलोचना का वैसा ही महत्व है जैसा पेड़
लगाना और उसके फलों का अस्वादन करना और किसी रचनाकार के किसी काल में उसके
बाद में एक लम्बी दीर्घावधि के लिए स्थापित करना इसी शास्त्र के द्वारा
सम्भव है।
प्रेम नंदन- जनपद में समीक्षा की एक समृद्ध परम्परा रही है, इसी वर्तमान स्थिति क्या है?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- फतेहपुर जनपद में समीक्षा की जो साहित्यिक
परम्परा मिलती है उसमें आपके द्वारा यह माना जाना कि वह समृद्ध रही है मैं
भी अपनी स्वीकृति देता हूँ। यह हमारे संशाधनों और साहित्य के प्रति हमारी
उपेक्षाओं का परिणाम है कि हम इस भूखण्ड का जिसे आप फतेहपुर कहने लगे हैं
बहुत दूर तक अतीत खोज नहीं पाये हैं। हम लोग अधिकतम सोलहवीं शताब्दी तक जा
पाते हैं। उसके पहले का जो साहित्य है उसे हम क्रमबद्ध करके प्रकाश में
नहीं ला पाये हैं।
काव्य
शास्त्र के आचार्यों में इस जनपद के नामों में पहला नाम करनेस बन्दीजन का
मिलता है यह अकबर (1556-1605) के दरबारी साहित्यकार थे और इनके द्वारा
लिखे गये तीन अलंकार ग्रन्थ प्राप्त होते हैं-कर्णाभरण, श्रुति भूषण और भूप
भूषण। ये ग्रन्थ शिव सिंह के पास होने का अनुमान होता है क्योंकि उन्होंने
सरोज-सर्वेक्षण में इनका उल्लेख किया है। कृपाराम और चिन्तामणि का नाम
कार्यकाल के अनुसार करनेस बन्दीजन के बाद आता है। ऐसा लगता है कि शीर्षकों
के माध्यम से अलंकार, नायक-नायिका भेद और संस्कृत के जयदेव तथा कुबलयानन्द
के ग्रन्थों का प्रभाव उन पर पड़ा है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि जिस
भक्तिकाल और रीतिकाल के बीच में करनेस बन्दीजन का नाम आता है और अकबरी
दरबार के कवियों में गणना होती है वह मात्र संस्कृत ग्रन्थों की अनुवादित
उद्धरणी नहीं रहा होगा क्योंकि भूप भूषण कृति का नाम इस बात का संकेत करता
है कि यह पारम्परिक अलंकारवादी ग्रन्थों से अलग हटकर होना चाहिए।
लगभग
300 वर्षों तक काव्य शास्त्रों का कई प्रकार का काम होता रहा संस्कृत
ग्रन्थों के अनुसार भाषा छन्दों का निर्माण, अलंकार ग्रन्थ, नायक-नायिका
भेद, टीकाकरण, ऋतु वर्णन, रस वर्णन। एक दो आचार्यों ने व्यंजना व्यापार से
जुड़कर व्याकरण के ग्रन्थों की भी रचना की और अगर फतेहपुर जनपद की धरती से
जुड़े हुए इन 300 वर्षों के साहित्यकारों को अलग करके रखा जाये तो किसी भी
प्रान्त में इतने आचार्य एक साथ इस अवधि में नहीं मिलेंगे। ये साहित्यकार
ज्यादातर असनी, असोथर, हसवा, एकडला, खजुहा आदि स्थानों के रहे हैं।
सन्
1850 में इस धारा में कुछ परिवर्तन आना प्रारम्भ हुआ और यह परिवर्तन केवल
फतेहपुर के साहित्यकारों में नहीं था बल्कि एक वर्ण्य विषय में ही परिवर्तन
हो रहा था। इन लोगों में तीन प्रमुख लोगों के नाम मैं लेना चाहूँगा-
पुरन्दर राम त्रिपाठी, सेवक बन्दीजन और लाला भगवानदीन ‘दीन’।
फतेहपुर
जनपद ही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी आलोचना जगत के रीतिबद्ध परम्परा को आधुनिक
परिस्थितियों से जोड़ने का काम लाला जी ने ही किया। देश प्रेम और वीररस को
उस युग में प्रमुख स्थान देकर लाला जी भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों के
रथवाहक हुये। उन्होंने हिन्दी के भक्तिकालीन और रीतिकालीन कवियों पर टीका
साहित्य लिखकर इतना बड़ा काम किया जो उस समय कोई भी साहित्यकार नहीं कर सका।
पाठकों के सिर पर चढ़ा केशव का प्रेत झाड़ने का मन्त्र लाला जी ने ही दिया।
देव और बिहारी के मल्ल युद्ध में लाला जी ने भी अपने खम ठोंके। हिन्दी शब्द
सागर के निर्माण में लाला जी ने बहुत योगदान दिया और उस समय के राष्ट्रीय
आन्दोलन से लाला जी आजीवन जुड़े रहे।
लाला
जी के बाद फतेहपुर से एक बहुत ही कीर्तिवन्त नाम उभरकर सामने आया वह है-
राजबहादुर लमगोड़ा का। इन्होंने रामचरित मानस को विश्व की सर्वश्रेष्ठ कृति
सिद्ध किया और उस समय उन अंग्रेज विद्वानों के सामने जो शेक्सपियर को ही
सर्वश्रेष्ठ मान रहे थे उनकी मान्यता को खण्डित किया। लमगोड़ा अंग्रेजी
साहित्य के उस समय के स्वर्णपदक विजेता थे व प्रारम्भ में अंग्रेजी का
अध्यापन कर चुके थे और फतेहपुर में राजस्व के प्रतिष्ठित अधिवक्ता थे।
उन्होंने एक किताब लिखी थी जो प्रशासनिक कार्यों की बड़ी मद्दगार थी। उन
लमगोड़ा जी को ऐसा राम रस लगा कि वह अध्यापकी वकालत सभी कुछ छोड़कर राममय हो
गये। उन्होंने रामचरित मानस में श्रंगार, हास्य, करुण रस के तीन खण्ड लिखे
और विश्व साहित्य में रामचरित मानस नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा जिसे नागरी
प्रचारिणी सभा काशी ने प्रकाशित किया।
बड़े
खेद का विषय है कि लमगोड़ा जी का नाम शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य के इतिहास
में नहीं है। जबकि महावीर प्रसाद द्विवेदी के कई प्रशंसा पत्र लमगोड़ा जी
की विवरिणका में प्राप्त हैं।
लमगोड़ा जी के बाद आलोचना साहित्य को डॉ0 रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ जी ने समृद्ध
किया। इन्होंने रत्नाकर के ‘उद्धव शतक’, हरिऔध के ‘प्रिय प्रवास’ की
महत्वपूर्ण भूमिकायें लिखीं। ये ब्रजभाषा के प्रशंसक और उसका सर्वोच्च
स्थान मानने वाले आचार्य थे। इन्होंने रत्नाकर की तर्ज पर उद्धव ब्रजांगना
नामक एक बड़ा काव्य लिखा। आलोचना शास्त्र का इन्होंने काव्य पुरुष शीर्षक से
एक शास्त्र लिखा। इन्होंने भी हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा। इनका शोध
प्रबन्ध ‘अलंकार पियूष’ दो भागों में प्रकाशित हुआ है।
इस
कड़ी में आगे चलकर डॉ0 विपिन बिहारी त्रिवेदी ने ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसे
विवादित ग्रन्थ पर कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपना शोध प्रबन्ध लिखा। फिर यह
आलोचना और शोध कार्य की प्रक्रिया निरन्तर बढ़ती रही और यहाँ के आचार्य और
विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में अपनी जिज्ञासा समाधान के लिए
कार्यशील बने रहे।
प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, आप हिन्दी जगत के मूर्धन्य आलोचक हैं। कृपया अपने योगदान एवं वैशिष्ट्य को रेखांकित करें?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-
इस प्रश्न का उत्तर मुझे न देना चाहिए क्योंकि वह कुटिल और भोंडी आत्म
प्रशंसा होगी। सरस्वती के विग्रह पर कर्म के यथाशक्ति दो पुष्प चढ़ाता रहा
हूँ। यही मेरा साहित्यिक योगदान है। जितने विशेषण लगाकर लोग सम्बोधित करते
हैं वह सरस्वती के भण्डार के शब्दों का दुरुपयोग करते हैं और मेरा उपयोग
करते हैं।
प्रेम नंदन- क्या कारण है कि शोध के नाम पर लोग श्रम करने से कतरा रहे हैं और चर्वित-चर्वण तथा पिष्ट-पेषण से संतुष्ट हुये जा रहे हैं?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- इसका व्यावहारिक पक्ष बहुत ही अश्लील और
दूषित है। शोध कराने वाले निदेशक शोधार्थी से अधिकतम धन संग्रह कर लेना
चाहता है और शोधार्थी रूपये के बल पर शोध कार्य की बेगार से बचना चाहता है।
समाज की इस नई रचना से विश्वविद्यालय स्तर का प्राथमिक पंजीकरण करने वाले
क्लर्क से लेकर उपाधि देने वाले तक इस लम्बी जंजीर में बहुत खोट है और
चूँकि मैं जिस समय का शोधार्थी हूँ उस समय की व्यवस्था और प्रक्रिया अब
पूरी तरह बदल चुकी है। इसलिए विश्वविद्यालय भी ऐसे लोगों से दूरी बनाते हैं
जो कुछ सार्थक और अच्छा कार्य करना चाहते हैं। आज विश्वविद्यालीय वातावरण
पूरी तरह से घृणित है।
प्रेम नंदन- प्रकाशन की वर्तमान स्थिति में आप शोध ग्रन्थों एवं शोध पत्रों का क्या भविष्य देखते हैं?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- शोध कार्य और प्रकाशन यह दो विभिन्न स्तरों
के सामाजिक वर्गों का संगठन है। प्रकाशक पूरी तरह व्यवसायी है और शोध का
प्रकाशन चाहने वाला अपने कृतित्व का प्रकाशन चाहता है। आज के संदर्भ में
स्थितियाँ पूरी तरह से बदली हुई हैं। बड़े-बड़े आलीशान भवनों में छात्र शून्य
विश्वविद्यालय चल रहे हैं और औजीदार अध्यापक पढ़ा रहे हैं।
सरकार
शिक्षा विभाग पर यूनेस्को की मदद से इतना रूपया बाँट रही है कि अगर वह
प्रकाशन में लगा दिया जाय तो शोध ग्रन्थों एवं शोध पत्रों की कमी पड़
जायेगी। सरकार अनुसंधान करने के लिए दो-तीन वर्ष का अवकाश देती है।
ज्ञानात्मक ऊर्जा को बनाये रखने के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन करती
है। प्रकाशन के लिए पूँजी देती है और अच्छा ईर्ष्याप्रद वेतनमान देती है
लेकिन बौद्धिक वर्ग तथाकथित अध्यापक वर्ग मकान, गाड़ी और फैशन के चक्कर में
इतना तल्लीन है कि दो-तीन घण्टे में सौ कापियां जांच कर अपनी विद्वता झाड़ता
है और विद्यार्थियों के साथ अन्याय करता है। इधर 20-25 वर्षों से किसी
अध्यापक के द्वारा लिखी गयी कोई कृति लोक चर्चा में आयी हो ऐसी जानकारी
मुझे नहीं है। जब शिक्षा विभाग में धन नहीं था तो ज्ञान भरपूर था लेकिन आज
जब धन है तो ज्ञान का लोप हो गया है।
समाप्त!
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