जितने तरह का सरकार द्वारा घोषित गांव हो सकता है उतने तरह का गांव है यह। बीते बरस गांव में हुये दमदार काम की आवाज भारत सरकार के कानों तक पहुंची और ग्राम प्रधान जी गांव में विकास, सफाई, सुविधा और सेवा के नाम काम करने की बिना पर निर्मल गावं की मालकिन बन भारत की राष्ट्रपति से हाथ मिला आई। गांव की गलियां, नालियां कूड़े और गंदगी से पटी पड़ी है, सालों पहले लगाये गये खड़ंजे खुद की पहचान खो रहे हैं। पुरानी बाजार जो कभी गांव की पहचान हुआ करती थी आज कूड़े के ढेर में तब्दील हो चुकी है। महेश्वर बाबा के मैदान की छाती पर भवन उग आये है।
सबसे पहले 1995 में यह आंबेडकर गांव बना। पहले ही जान लीजिये कि यह काम कागज पर हुआ जमीन पर नहीं। लिहाजा सुविधा मिलने का सवाल नहीं। यह बात अलग है कि उसकी सुविधाओं ने प्रधान जी को सुख दिया। गांव वालों ने केवल सुना कि हमारा गांव अब आंबेडकर गांव है। खुश हुये सुख नहीं मिला। खंड़जे में तब भी चले थे अब भी चल रहे है। गांव वाले कहते है कुछ नहीं बदला गांव में प्रधान जी के काम करने से।
ज्यादा वक्त नहीं बीता जब खदरा की सैकड़ों साल पुरानी बाजार उक्त दोनो ब्लाकों की बड़ी और नामी बाजार हुआ करती थी। मिठाई अगर अच्छी मिलती थी तो खदरा में। वह भी खोये कि मिठाई की कई दुकानों के विकल्प के साथ। चाहे गुप्ताइन के यहां या मन करे तो जमुना के यहां , मन हो तो बड़ी की दुकान में। और यहां भी मन न भरे तो ललउवा की दुकान थी। बांऊ और गंगापरसाद की दुकान में टक्करी पान मिलता था।
आस पास के सभी गांवों में यह अकेला है जहां बाल्मिकी समाज का सदस्य गांव में पूरे अधिकार के साथ रहता है। इसी गांव में मेहतर जाति के बच्चे बड़ी जाति के बच्चों के साथ स्कूल में बराबर पढ़ते और खेलते रहे हैं। रेलवे स्टेशन के नजदीक बसे इस गांव में आस पास के गांवों का डाकखाना है।
सबसे पहले 1995 में यह आंबेडकर गांव बना। पहले ही जान लीजिये कि यह काम कागज पर हुआ जमीन पर नहीं। लिहाजा सुविधा मिलने का सवाल नहीं। यह बात अलग है कि उसकी सुविधाओं ने प्रधान जी को सुख दिया। गांव वालों ने केवल सुना कि हमारा गांव अब आंबेडकर गांव है। खुश हुये सुख नहीं मिला। खंड़जे में तब भी चले थे अब भी चल रहे है। गांव वाले कहते है कुछ नहीं बदला गांव में प्रधान जी के काम करने से।
देवमई विकास खंड के सभी गांवों में यह गांव विशेष है। विशेष इन मायनों में की आजादी की लड़ाई में अपनी अग्रणी भूमिका निभाने के अलावा यह शुरूआत से ही न्याय पंचायत बना। आज इस गांव की पहचान खो रही है अन्यथा कानपुर की खोया मंडी में देवमई और मलवां से बिकने जाने वाला खोया खदरा की मंडी के नाम से ही बिकता रहा है।
ज्यादा वक्त नहीं बीता जब खदरा की सैकड़ों साल पुरानी बाजार उक्त दोनो ब्लाकों की बड़ी और नामी बाजार हुआ करती थी। मिठाई अगर अच्छी मिलती थी तो खदरा में। वह भी खोये कि मिठाई की कई दुकानों के विकल्प के साथ। चाहे गुप्ताइन के यहां या मन करे तो जमुना के यहां , मन हो तो बड़ी की दुकान में। और यहां भी मन न भरे तो ललउवा की दुकान थी। बांऊ और गंगापरसाद की दुकान में टक्करी पान मिलता था।
जिले की पत्रकारिता में अग्रगण्य रहे स्व.पं. दयाशंकर मिश्र इसी गांव की धरा-धूल में पले बढ़े थे। मिश्र जी की महल नुमा रिहायश गांव की तरह ही अपनी बदहाली पर आज आंसू रो रही है। आज से पच्चीस साल पहले इस गांव के अलावा आस पास शिक्षण संस्थायें नहीं थीं। इतना ही नहीं आसपास के गांवों में यही गांव है जहां मुसलमान शानदार मस्जिद बना कर रहते है और अब तक उस मस्जिद की तरह बहुसंख्यक हिंदुओं से झगड़े का इतिहास नहीं मिलता है दोनो प्रेम से साथ है। दशहरे की रामलीला के लिये मुसलमान और बड़े बाबा छोटेबाबा के उर्स के लिये हिंदू दान करते है।
आस पास के सभी गांवों में यह अकेला है जहां बाल्मिकी समाज का सदस्य गांव में पूरे अधिकार के साथ रहता है। इसी गांव में मेहतर जाति के बच्चे बड़ी जाति के बच्चों के साथ स्कूल में बराबर पढ़ते और खेलते रहे हैं। रेलवे स्टेशन के नजदीक बसे इस गांव में आस पास के गांवों का डाकखाना है।
संक्षेंप में समझे तो सब कुछ है खदरा के पास केवल ईमानदार , कर्मठ और उत्साही नेतृत्व के अलावा।
यह खबर महत्वपूर्ण है ,आभार.
जवाब देंहटाएंजानकारीपूर्ण आलेख. धन्यवाद.
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