राजनैतिक दलों द्वारा अन्य जिलों के नेताओं को तरजीह देने के कारण फतेहपुर संसदीय सीट पर अधिकांश समय गैर जिलों के लोगों ने ही लोकसभा में यहां का प्रतिनिधित्व किया। इसका असर यह हुआ कि जिले के विकास पर कम ध्यान दिया गया। जिसकी वजह से फतेहपुर सुविधाओं के मामले में अन्य जनपदों से काफी पीछे चल रहा है।
यहां चौदह लोकसभाओं के लिए चुने गए कुल 11 सांसदों में 8 परदेशी रहे, स्थानीय तीन ही लोगों को संसद में प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछडे़ इस जिले के लोगों में जागरूकता की कमी रही, जिससे उनको प्रमुख राजनैतिक दल प्रत्याशी बनाने से गुरेज करते रहे।गंगा यमुना के दोआबा क्षेत्र में स्थित फतेहपुर संसदीय क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा कि आजादी के बाद यहां पर कोई ऐसा नेता नहीं मिला, जिसने सांसद पद के लिए कांग्रेस में कभी गंभीर दावेदारी की हो। उस दरम्यान कांग्रेस का ही बोलबाला था। 1952 में इलाहाबाद के रहने वाले शिवदत्त उपाध्याय और 1957 में भी इसी जिले के रहने वाले अंसार हरवानी ने प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद 1962 के चुनाव में देशी परदेशी का मुद्दा गरमाया तो जिले के रहने वाले अधिवक्ता गौरीशंकर कक्कड़ निर्दलीय सांसद चुने गए। इसके बाद 1967 और 71 में फिर से कांग्रेस के टिकट से प्रतापगढ़ जिले के रहने वाले संतबख्श सिंह सांसद रहे।
देश में इमरजेंसी लगाने पर कांग्रेस की छवि प्रभावित हुई तो 1977 में जनता पार्टी के टिकट से इलाहाबाद के रहने वाले वकील बशीर अहमद सांसद चुन लिए गए। इनकी मौत होने के कारण मध्यवधि चुनाव हुआ, जिसमें स्थानीय को जनता पार्टी ने तवज्जो देकर 1978 में चुनाव में उतारा तो लियाकत हुसैन सांसद बन गए। इसके बाद 1980 और 84 में बनारस के रहने वाले स्व। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के पुत्र हरीकृष्ण शास्त्री ने कब्जा बरकरार रखा। इनके कब्जे से 1989 में राजा मांडा वीपी सिंह ने सीट छीनी और 1991 के चुनाव में भी कब्जा बरकरार रखा।
1996 में बांदा जिले के रहने वाले विशंभर के कब्जे में यह सीट चली गई। 1998 और 99 के चुनाव में जिले के रहने वाले डा. डाक्टर अशोक पटेल सांसद चुने गए। इसके बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में बांदा जिले के ही रहने वाले बसपा के महेंद्र निषाद ने कब्जा कर लिया, जो अभी तक बरकरार है। खास बात तो यह है कि भाजपा को छोड़कर सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के उम्मीदवार मूलरूप से गैर जिलों के हैं। यह बात दीगर है कि कुछ प्रत्याशियों ने आवासों का निर्माण करा अपने को मतदाता भी बना लिया है।
यहां चौदह लोकसभाओं के लिए चुने गए कुल 11 सांसदों में 8 परदेशी रहे, स्थानीय तीन ही लोगों को संसद में प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछडे़ इस जिले के लोगों में जागरूकता की कमी रही, जिससे उनको प्रमुख राजनैतिक दल प्रत्याशी बनाने से गुरेज करते रहे।गंगा यमुना के दोआबा क्षेत्र में स्थित फतेहपुर संसदीय क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा कि आजादी के बाद यहां पर कोई ऐसा नेता नहीं मिला, जिसने सांसद पद के लिए कांग्रेस में कभी गंभीर दावेदारी की हो। उस दरम्यान कांग्रेस का ही बोलबाला था। 1952 में इलाहाबाद के रहने वाले शिवदत्त उपाध्याय और 1957 में भी इसी जिले के रहने वाले अंसार हरवानी ने प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद 1962 के चुनाव में देशी परदेशी का मुद्दा गरमाया तो जिले के रहने वाले अधिवक्ता गौरीशंकर कक्कड़ निर्दलीय सांसद चुने गए। इसके बाद 1967 और 71 में फिर से कांग्रेस के टिकट से प्रतापगढ़ जिले के रहने वाले संतबख्श सिंह सांसद रहे।
देश में इमरजेंसी लगाने पर कांग्रेस की छवि प्रभावित हुई तो 1977 में जनता पार्टी के टिकट से इलाहाबाद के रहने वाले वकील बशीर अहमद सांसद चुन लिए गए। इनकी मौत होने के कारण मध्यवधि चुनाव हुआ, जिसमें स्थानीय को जनता पार्टी ने तवज्जो देकर 1978 में चुनाव में उतारा तो लियाकत हुसैन सांसद बन गए। इसके बाद 1980 और 84 में बनारस के रहने वाले स्व। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के पुत्र हरीकृष्ण शास्त्री ने कब्जा बरकरार रखा। इनके कब्जे से 1989 में राजा मांडा वीपी सिंह ने सीट छीनी और 1991 के चुनाव में भी कब्जा बरकरार रखा।
1996 में बांदा जिले के रहने वाले विशंभर के कब्जे में यह सीट चली गई। 1998 और 99 के चुनाव में जिले के रहने वाले डा. डाक्टर अशोक पटेल सांसद चुने गए। इसके बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में बांदा जिले के ही रहने वाले बसपा के महेंद्र निषाद ने कब्जा कर लिया, जो अभी तक बरकरार है। खास बात तो यह है कि भाजपा को छोड़कर सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के उम्मीदवार मूलरूप से गैर जिलों के हैं। यह बात दीगर है कि कुछ प्रत्याशियों ने आवासों का निर्माण करा अपने को मतदाता भी बना लिया है।
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