जिले के मतदाताओं में यह खासियत रही कि किसी को निराश नहीं किया है। हर दल को बुलंदियों तक ले गया है और फिर उसे किनारे कर दिया है। नेतृत्व की बागडोर हमेशा दलीय प्रत्याशियों को ही सौंपी है। वर्ष 1962 इसका अपवाद है जब गौरीशंकर कक्कड़ कांग्रेस के प्रत्याशी को पराजित कर संसद पहुंचे। वर्ष 2009 का आइना बदला हुआ होगा। इस बार परिसीमन से संसदीय क्षेत्र का जहां भूगोल बदला हुआ है वहीं मतदाताओं की संख्या भी तीन लाख से अधिक बढ़ गयी है। नये भूगोल पर इतिहास बनाने के लिये यूं तो हर दल हाथ-पैर मार रहे हैं। देखना यह है कि मतदाता इस बार अपनी पसंदगी का रुख किस ओर मोड़ रहा है।
पंद्रहवीं लोकसभा के गठन के लिये चुनाव की तिथियां घोषित होने के साथ ही राजनीतिक दलों की सरगर्मी तेज हो गयी है। संसदीय क्षेत्र के लिये तीसरे चरण में यानी 30 अप्रैल को मतदान होगा। 2 अप्रैल से अधिसूचना जारी होने के साथ नामांकन 9 अप्रैल तक चलेगा। इसके बाद नामांकन पत्रों की जांच और तेरह अप्रैल को नामवापसी होगी। वर्ष 1952 से संसदीय क्षेत्र के इतिहास पर नजर डालें तो जिले के मतदाताओं ने हर दल को तवज्जो दी है। लगातार संघर्ष करने वाले किसी भी दल को मायूस नहीं किया है। यह जरूर है कि अपनी पसंदगी को बुलंदियों तक पहुंचाने के बाद मतदाताओं ने रुख मोड़ा और चुनाव परिणाम को पलट दिया। पंद्रह बार हुए चुनाव में सर्वाधिक जीत कांग्रेस की झोली में छ: बार गयी। वर्ष 1952, 57, 67, 71, 80 व 84 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने कांग्रेस को संसदीय क्षेत्र के नेतृत्व की बागडोर सौंपी। भाजपा को वर्ष 1998 व 99 के चुनाव में जीत दिलायी। बसपा को भी जिले के मतदाताओं ने दो बार संसदीय क्षेत्र के नेतृत्व का मौका दे दिया है। वर्ष 1996 में विशम्भर निषाद बसपा से चुनाव जीते थे। यही प्रत्याशी वर्ष 1998 में सपा से चुनाव मैदान में उतरे थे। मतदाताओं ने नकार दिया। वर्ष 2004 में बहुजन समाज पार्टी से महेन्द्र निषाद को जीत दिलायी। इसके अलावा जनता पार्टी को दो बार, जिले की ही संसदीय क्षेत्र से जीतकर पहुंचे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देश के प्रधानमंत्री की बागडोर संभाली थी। जिले की जनता ने वर्ष 1989 में 49 फीसदी मत वीपी सिंह को देकर ऐतिहासिक जीत हासिल करायी। हालांकि दोबारा 1991 में जब वह फिर चुनाव मैदान में उतरे तो जीत तो हासिल कर ली, लेकिन वोट प्रतिशत सात फीसदी कम हो गया।
वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव पिछले सभी चुनावों से अलग होगा। एक तो परिसीमन के बाद जो भौगोलिक स्थिति सामने आयी है उसमें बांदा जनपद की तिंदवारी विधानसभा का नाता संसदीय क्षेत्र से समाप्त हो गया है। जिले की दो विधानसभायें जो घाटमपुर व चायल संसदीय क्षेत्र में शामिल थीं वह अब संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आ गयी हैं। ऐसे में मतदाताओं की संख्या जहां बढ़कर साढ़े पंद्रह लाख पहुंच गयी है वहीं जातीय समीकरण भी पहले से भिन्न हो गये हैं। पांच की जगह छ: विधानसभाओं के बड़े क्षेत्रफल में चुनाव प्रचार में भी प्रत्याशियों की कवायद बढ़ गयी है। उधर अभी तक सुरक्षित सीटों के अंतर्गत रहे खागा व जहानाबाद के मतदाता पहली बार सामान्य प्रत्याशियों से जुड़ रहे हैं ऐसे में इन दोनों विधानसभाओं की सरगर्मी कुछ ऐसी होगी जो संसदीय क्षेत्र के परिणाम को उलट-पलट कर सकती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
Write टिप्पणियाँ